Saturday 6 September 2014

जग की माया

288

जन्म की माया
मृत्यु की सेज पर
हँसती रही|

287

वीराना भ्रम
प्रतिध्वनित सा स्वर
क्रम में बहा|

286

अम्बर धरा
क्षितिज पर मिले
भ्रम में जिए|

286

हरि की माया
हरि रूप को पाए
छके नारद|

285

स्वप्न की इच्छा
मृग की मरिचिका
बुझे न प्यास|

284

चाहत बढ़ी
टूटे हैं कई रिश्ते
धन की माया|

283

हमारे जैसा
जग में न दूजा है
पद की माया|

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